Humrang.com के माध्यम से साहित्यकार घर बैठे अपनी रचनाओं को लोगों तक पहुंचा रहे हैं।
कोरोना विषाणु संक्रमण के कारण अभी स्कूल, कॉलेज जैसे शिक्षा संस्थान बंद हैं। जिसकी वजह से अध्ययन, अध्यापन का कार्य छात्र व अध्यापक घर बैठे सोशल मीडिया या विडियो ऐप के माध्यम से ही कर रहे हैं। ऐसे में कई सोशल मीडिया प्लेटफॉर्म पर कई साहित्यिक समूह भी है, जो कई साहित्यकारों के माध्यम से उनकी रचनाओं को लोगों तक पहुंचा रहे हैं। इसी क्रम में एक साहित्यिक समूह है ‘हमरंग’। सोशल मीडिया प्लेटफॉर्म फैसबुक में Humrang.com नाम से यह पेज है।
अभी ‘हमरंग’ पेज पर कहानियों की श्रृंखला के चौथे हिस्से ‘बारह क़िस्से टन्न-4’ की प्रस्तुती चल रही है। जिसमें रोज़ाना एक साहित्यकार अपनी रचना हमरंग पेज पर लेकर उपस्थित होता है और रचना पाठ करता है। इसी क्रम में बृहस्पतिवार, 30 जुलाई को दिल्ली विश्वविद्यालय के स्वामी श्रद्धानंद कॉलेज के प्राध्यापक टेकचंद द्वारा हमरंग पर अपनी कहानी ‘मोहर’ की प्रस्तुती दी गई।
यह कहानी एक दलित परिवार के माध्यम से तमाम उन दलितों का प्रतिनिधित्व करती है, जो दलित होने के बावजूद अच्छे सरकारी ओहदे पर होने के बाद भी सामाजिक प्रतिष्ठा में सूक्षम या बारीक भेदभाव होते देखता है, पर मजबूरी में कर कुछ नहीं पाता। टेकचंद के अनुसार यह कहानी दिल्ली के एक ग्रामीण इलाके की है। जो उन्हीं के एक साथी के वास्तविक जीवन पर आधारित है।
कहानी कुछ इस प्रकार है – धनराज नाम का व्यक्ति जो दलित पात्र है। वह भारत सरकार के लोक एवं कर्मिक प्रशिक्षण विभाग में अनुभाग अधिकारी होता है। उस ग्रामीण क्षेत्र के लोग धनराज से किसी भी सरकारी कामकाज के चलते दस्तावेजों पर हस्ताक्षर व मोहर लगवाते हैं। इस कहानी में रचनाकार ने दो घटनाओं के आधार पर सवर्ण द्वारा दलितों से कि जाने वाली भेदभाव को बेहद ही मार्मिक ढंग से प्रस्तुत किया है। जिसमें पहला तो गांव के एक सवर्ण पात्र, जिसे कहानी में प्रधान कहा गया है। वह अपने पोते के किसी सरकारी कामकाज के चलते दस्तावेजों पर हस्ताक्षर करने के लिए धनराज के घर जाता है। जहां धनराज से बातचीत करने के क्रम में भी सूक्षम जातिय भेदभाव का आभास होता है। गांव के प्रधान का घर पर आने से अतिथि भाव के कारण धनराज की बेटी प्रधान के लिए जो पानी लाती है, लेकिन प्रधान बहाना कर उनका पानी पीने से मना कर देता है। इस घटना का मानसिक प्रभाव धनराज की बेटी पर पड़ता है, जो स्वभाव से विरोधी प्रकृति की होती है। उसे प्रधान का यह भेदभाव बिलकुल भी अच्छा नहीं लगता, जिसे वो प्रधान के जाने के बाद अपने पिता से प्रकट करती है। दूसरी घटना यह की गांव के ही एक और सवर्ण व्यक्ति को अपने ही एक सरकारी कामकाज के लिए दस्तावेजों पर मोहर लगवाने के लिए धनराज के घर जाना पड़ता है। धनराज की बेटी उसी समय पिता के चाय के लिए दूध लाने अपने मोहल्ले से बाहर सवर्णों के मोहल्ले में जाती है, जहां वह सवर्णों को पानी बर्बाद करते हुए देखती है, साथ ही जो बुजुर्ग व्यक्ति उनके घर में अपने दस्तावेजों पर मोहर लगवाने के लिए जाता है। वह उनके परिवार के सदस्यों से अपने जाति व अपने परिवार के बारे में भेदभाव पूर्ण बातों को सुनकर दंग रह जाती है और तेजी से घर की ओर चली जाती है। घर पहुंचकर वह मोहर को अपने हाथ के पंजों में छुपा लेती है और मोहर ने मिलने की वजह से वह सवर्ण बुजुर्ग बिना कार्य पूरा हुए ही, वहां से चला जाता है। तब धनराज की बेटी अपने हाथ की मुट्ठी खोलकर वह मोहर अपने पिता को दिखाती है। जिसमें उसके हथेली पर वह मोहर छप जाता है। इसके बाद वह तीनों आपस में एक दूसरे को देखते हैं और उसके पिता उसे वह मोहर अपने पास रखने के लिए कहकर, दफ्तर के लिए निकल पड़ते हैं।
इस पूरी कहानी में गांव के सवर्णों द्वारा दलितों को लेकर जो मानसिकता है, उसका उद्घाटन भी इस कहानी में रचनाकार द्वारा बेहद ही सूक्ष्म तरीके से प्रस्तुत किया गया है। कहानी में लेखक ने गांव के सवर्ण और दलितों के मोहल्लों के रूप, आकार को भी अच्छे से प्रस्तुत किया है। साथ ही सवर्णों के बीच में दलितों को लेकर की गई बातचीत को भी दिखाया गया है।
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